तत्कालीन समाज और संस्कृति का दैदीप्यमान दीपक है अप्रकाशित शिलालेख: डॉ. भाटी

जोधपुर। भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के सौजन्य से एवं राजस्थानी शोध संस्थान चौपासनी के तत्वावधान में तीन दिवसीय राजस्थान के समाज-संस्कृति में अप्रकाशित शिलालेखों का महत्व विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन तीन सत्र हुए।
प्रथम सत्र में डॉ. जमनेश कुमार ओझा ने मांडल (मेवाड़) गांव के कतिपय अप्रकाशित शिलालेख सामाजिक एवं सांस्कृतिक विवेचन विषयक अपने शोध पत्र में बताया कि यहां के शिलालेखों से तत्कालीन संस्कृति के बारे में विशिष्ट जानकारी मिलती है। राकेश रामावत ने बिलाड़ा क्षेत्र के अप्रकाशित शिलालेखों के बारे में विस्तार से जानकारी दी। लगभग चालीस शिलालेखों के माध्यम से उन्होंने तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति पर प्रकाश डाला। इस सत्र की अध्यक्षता डॉ. हुकमसिंह भाटी ने की तथा संयोजन डॉ. राजेन्द्र कुमार ने किया।
द्वितीय सत्र में प्रो. गिरीश नाथ माथुर ने मेवाड़ के कतिपय शिलालेखों पर प्रकाश डालते हुए समाज और संस्कृति में उनका क्या अवदान रहा? इस पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि इन शिलालेखों की भाषा राजस्थानी, फारसी एवं संस्कृत है। तनेसिंह सोढा ने जैसलमेर क्षेत्र के कतिपय अप्रकाशित शिलालेखों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि इन शिलालेखों का धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्व है। ये शिलालेख मन्दिरों-मठों, कुओं-बावडिय़ों आदि में मिलते हैं। ये जैसलमेर के पीले पत्थर पर खुदे हुए हैं। इनसे विशेष रूप से दशनामी साधुओं से सम्बन्धित जानकारी मिलती है। डॉ. मीना कुमारी ने चुरू एवं नोहर के अप्रकाशित शिलालेखों का ऐतिहासिक महत्त्व बताते हुए कहा कि ये शिलालेख बहुत प्राचीन हैं और विशेष रूप से इनमें नाथ सम्प्रदाय के बारे में जानकारी मिलती है। इन शिलालेखों में एक वि.सं. 1102 का शिलालेख भी है जिस पर उन्होंने प्रकाश डाला। इस सत्र की अध्यक्षता डॉ. जिब्राईल ने की जबकि संयोजन डॉ. कालू खां ने किया।
तृतीय सत्र में प्रो. याकूब खां ने नागौर क्षेत्र के कतिपय अप्रकाशित फारसी शिलालेखों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि इस क्षेत्र में एक ऐसी मस्जिद है जिसका निर्माण संगीत सम्राट तानसेन की पुत्री तिलोकनी बाई ने करवाया। यह सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक है। इन शिलालेखों से तत्कालीन समाज में महिलाओं की प्रतिष्ठा और सम्मान के बारे में भी जानकारी मिलती है। अजय मोची ने ओगणा गांव का अज्ञात शिलालेख के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि यह शिलालेख ओगणा ठिकाने के वर्षक्रम को जानने की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसमें सुरालेख, राजा की आज्ञा, मन्दिरों की पुजारियों आदि की जानकारी मिलती है। डॉ. वसुमति शर्मा ने बर (पाली) संभाग के कतिपय अप्रकाशित शिलालेखों का सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व उजागर किया। इन शिलालेखों के माध्यम से स्त्रियों की दशा के बारे में भी बताया। उन्होंने बर में स्थित वि.सं. 1170 के शिलालेख की जानकारी दी जिसमें सती का होने का जिक्र है और उसके पिता का नाम भी दिया हुआ है। इस सत्र की अध्यक्षता प्रो. विनिता परिहार ने की एवं संयोजन डॉ. मीना कुमारी ने किया। संगोष्ठी का संचालन संस्थान के शोध अधिकारी, डॉ. सद्दीक मोहम्मद ने किया।

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