ध्यान में जीना सीख जाएँ तो हर दिन आनंद : चन्द्रप्रभ
Gulam Mohammed, Editor, Seva Bharati News
हर सुबह ध्यान करना एवं हर काम को ध्यान से करना सफलता का मूल मंत्र है।
जोधपुर। संत श्री चन्द्रप्रभ ने कहा कि ध्यान महामार्ग है। विश्व के सभी धर्मों के मार्ग अलग हो सकते हैं, पर ध्यान सर्वत्र है। अतीत, वर्तमान या भविष्य – हर युग में मनुष्य के अशांति, तनाव और चिंता से मुक्त होकर आध्यात्मिक आनंद का मालिक बनने के लिए ध्यान सर्वोपरि औषधि रहा है। अंतर-जगत का अपना स्वाद, सुवास एवं प्रकाश है। स्वयं में प्रवेश करने के लिए ध्यान ही एकमात्र मार्ग है। ध्यान आत्म-ज्ञान को प्राप्त करने की कुंजी है। तीर्थंकर महापुरुषों ने अपने साधना काल में लगातार ध्यान ही किया है।
एकांत, मौन और ध्यान उनके साधना के आधार रहे। इसीलिए दुनिया भर में तीर्थंकरों की समस्त प्रतिमाएँ ध्यान अवस्था में हैं। ध्यान तीर्थंकरों का मार्ग है। संतप्रवर यहाँ गाँधी मैदान में आयोजित दिव्य सत्संग प्रवचन माला में मेडिटेशन से कैसे बढ़ाएँ अपना एनर्जी लेवल विषय पर प्रवचन दे रहे थे। उन्होंने कहा कि ध्यान अध्यात्म का मार्ग है। इसके लिए कुछ भी उपक्रम करने की जरूरत नहीं, केवल मुक्त होकर जहाँ बैठे हो वहीं आँख बंद करके अपने में उतर जाए, छोटी-सी डुबकी लगा ली और अंतरजगत का आनंद ले लिया। विज्ञान और ध्यान दोनों ही प्रयोगधर्मी हैं। विज्ञान के प्रयोग बाहर और ध्यान के भीतर होते हैं। विज्ञान उस चाँद तक पहुँचाता है जहाँ से व्यक्ति मिट्टी के ढेले लेकर आता है और ध्यान उस अंतर-लोक तक पहुँचाता है जहाँ आत्मा और परमात्मा का सत्य समाहित है।
उन्होंने कहा कि ध्यान जीवन की प्रत्येक गतिविधि के लिए भी जरूरी है। जितनी सजगता से महिला पापड़ सेकती है अगर उतनी ही सजगता से हम जीवन को जी लें, तो जीवन के हर कदम पर ध्यान के फूल खिल सकते हैं। गर्म तवे से हाथ जला, क्योंकि ध्यान चूक गए। चलते हुए गड्ढे में गिर गए क्योंकि वहाँ भी ध्यान चूक गए। हाथ में प्लास्टर का पट्टा बंधा, क्योंकि ध्यान चूक गया। भोजन करते समय गाल दाँत के बीच में आ गया क्योंकि ध्यान चूक गया। सर्वत्र जरूरी है ध्यान। संतप्रवर ने कहा कि ध्यान का प्रवेश-द्वार है – बाहर से भीतर मुड़ो, भीतर के विकार समाप्त करो और परम शांति में जिओ। जैसे महापुरुषों का जन्म किसी शुभ वेला, शुभ घड़ी और शुभ नक्षत्र में होता है ऐसे ही ध्यान का जन्म भी एक विशेष भावदशा और निर्मल वातावरण में होता है। बाहर का वातावरण – स्वच्छ स्थान, पवित्र वातावरण, एकांत आसन, ज्ञानमुद्रा या योगमुद्रा। बाएँ हाथ पर दायाँ हाथ – ये सब ध्यान की बाहरी आवश्यकता हैं।
सांसारिक गतिविधियों पर अंकुश, व्रतों का पालन, आसक्ति का त्याग, इंद्रियों पर संयम, कषायमुक्ति और हृदयशुद्धि ये सब ध्यान के लिए आंतरिक वातावरण को निर्मल करने के लिए जरूरी हैं। ध्यान हमेशा उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुँह करके कीजिए। बैठते समय आसन थोड़ा मोटा बिछाएँ। पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन में बैठ सकते हैं। कपड़े ज्यादा टाइट न पहनें, कक्ष में जब ध्यान कर रहे हैं, वहां प्रकाश कम हो। ध्यान के प्रारंभ में ओम्, सोहम् या शिवोहम् जैसे सूक्ष्म मंत्रों का भी प्रयोग कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि आसन, प्राणायाम, स्वाध्याय, कीर्तन, व्रतों का पालन – ये ध्यान का परिवार है। हर साधक ध्यान के इन सभी सदस्यों को जीवन में जोड़कर रखे। ध्यान के प्रारम्भिक चरण में श्वास-दर्शन कीजिए ताकि एकाग्रता सधे, चित्त की वृत्तियों को निहारिए ताकि भीतर में शांति उतर सके, स्वयं को हृदय पर केन्द्रित कीजिए ताकि भाव शुद्ध हो, सहस्रार पर केन्द्रित कीजिए ताकि आत्मबोध प्राप्त हो और विदेह-दर्शन कीजिए ताकि परमात्म-दर्शन हो सके। जैसे पत्थर में से मूर्ति डिस्कवर होती है – वैसे ही परमात्म हमारे भीतर है। प्रवचन समारोह का शुभारम्भ श्रीमती चन्द्रकला भंसाली, चन्द्रा मेहता, आशा जैन, इन्दू भंसाली, ओमप्रकाश भंसाली ने दीप प्रज्वलन के साथ किया। मंगल पाठ डॉ. मुनि शान्तिप्रिय सागर ने किया। संचालन संदीप मेहता ने किया।