इतिहास को बचाने में शिलालेखों का विशिष्ट महत्व

जोधपुर। भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के सौजन्य से एवं राजस्थानी शोध संस्थान चौपासनी के तत्वावधान में तीन दिवसीय राजस्थान के समाज-संस्कृति में अप्रकाशित शिलालेखों का महत्व विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आगाज राजस्थानी शोध संस्थान चौपासनी में हुआ। समारोह के मुख्य अतिथि प्रो. केएस गुप्ता ने कहा कि स्थानीय इतिहास वास्तविक इतिहास है। इस दृष्टि से इतिहास का सही लेखन तभी हो सकता है, जब हम शिलालेखों का अध्ययन करेंगें। इन शिलालेखों से हमें ज्ञात होता है कि भूमि कर कैसे लिया जाता था, राजस्व कितना था, उस समय स्त्रियों की क्या दशा थी। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि राजस्थान का सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास लिखा जाए तो हमें शिलालेखों का अध्ययन करना पड़ेगा। उनकी गहराई में जाना पड़ेगा। इतिहास की विरासत को बचाने में शिलालेखों का विशिष्ट महत्व है। समारोह की अध्यक्षता करते हुए पूर्व नरेश गजसिंह ने कहा कि राजस्थान शिलालेखों की दृष्टि से समृद्ध है। यहां गढ़-किलों, तालाब-बावडिय़ों, कुओं, मठ-मन्दिरों, देवल-छतरियों आदि में बहुत से शिलालेख हैं। यदि इन शिलालेखों को खोज कर शोध की जाए तो इतिहास को नया रूप दिया जा सकता है। वर्तमान समय में इन शिलालेखों में दुर्दशा हो रही है। इन पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। अत: आवश्यकता इस बात की है कि इनका संरक्षण किया जाए और नव इतिहास लेखन में इनका उपयोग किया जाए। शिलालेखों की प्राथमिक स्रोतों के रूप में विशिष्ट महत्ता है। इसलिए इनकी खोज कर इन्हें सुरक्षित किया जाए।
समारोह के विशिष्ट अतिथि प्रो. शिवकुमार भनोत ने कहा कि शिलालेख एक ऐसी चीज है, जिसका इतिहास लेखन में विशिष्ट महत्व है। चौपासनी शिक्षा समिति के मानद् सचिव प्रहलादसिंह राठौड़ ने कहा कि शिलालेख इतिहास की कुंजी हैं। यह गागर में सागर की स्थिति है। अप्रकाशित शिलालेखों के अध्ययन से आने वाले राजस्थान के इतिहास में एक नया युग शुरू हो सकता है। समिति राजस्थानी शोध संस्थान, चौपासनी के अध्यक्ष चक्रवर्तीसिंह जोजावर ने कहा कि इतिहास का आधार शिलालेख हैं। यह नव इतिहास लेखन में इनका उपयोग किया जा सकता है। इस दृष्टि से इन्हें ढूंढने का कार्य किया जाना चाहिए ताकि राजस्थान का नव इतिहास प्रकाश में आ सके। इस अवसर पर डॉ. विक्रमसिंह भाटी द्वारा संपादित ‘पाण्डुलिपि पठन एवं भाषा विज्ञान’ शीर्षक पुस्तक का अतिथियों ने लोकार्पण किया। इस पुस्तक में राजस्थानी भाशा की मुडिय़ा लिपि अक्षर एवं अंक ज्ञान के बारे में विशिष्ट जानकारी दी गई है।
संगोष्ठी के प्रथम सत्र में डॉ. प्रियदर्शी ओझा ने कानोड़ ठिकाने के अप्रकाशित शिलालेख एक अध्ययन समाज एवं संस्कृति के संदर्भ में, डॉ. राजेन्द्र शाह ने अर्बुद क्षेत्र के अप्रकाशित शिलालेख एवं उनका सांस्कृतिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व, सौरव भारती ने दशनामी संन्यासी मठों के अप्रकाशित शिलालेख एवं उनका सामाजिक व सांस्कृतिक महत्त्व विशय पर अपने पत्र-वाचन किए। इस सत्र की अध्यक्षता प्रो. अरविन्द परिहार एवं संयोजन नारायणसिंह पीथळ ने किया।
द्वितीय सत्र में वीरेन्द्रसिंह इंदा ने इन्दावटी के अभिलेख एवं उनका सामाजिक व सांस्कृतिक महत्त्व, सपना कुमारी ने जोधपुर के कोरणा ठिकाने के अप्रकाशित शिलालेखों का समाज एवं संस्कृति में अवदान, डॉ. कालू खां ने मेड़ता क्षेत्र के अप्रकाशित शिलालेखों का समाज-संस्कृति में अवदान विशय पर अपना पत्र-वाचन किया। इस सत्र की अध्यक्षता प्रो. याकूब खां एवं संयोजन डॉ. वसुमति शर्मा ने किया।
तृतीय सत्र में शमा बानो ने राजस्थान में अल्पज्ञात फारसी शिलालेखों का सामाजिक, सांस्कृतिक महत्त्व एवं उनका संरक्षण, मनीष श्रीमाली ने मेवाड़ का धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन (अप्रकाशित शिलालेखों के सम्बन्ध में) विषय पर अपना पत्र-वाचन किया। इस सत्र की अध्यक्षता प्रो. गिरीशनाथ माथुर एवं संयोजन प्रो. जे.के. ओझा ने किया। संगोष्ठी का संचालन संस्थान के शोध अधिकारी डॉ. सद्दीक मोहम्मद ने किया।

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