ग्राम्यजीवन रक्षा की अनूठी लोकरस्म

आदिवासी क्षेत्रों में आज भी जीवन्त हैं सदियों पुरानी परम्पराएँ
पशु रक्षा का वार्षिक लोक-अनुष्ठान – बेडियू
– डॉ. दीपक आचार्य

सदियों से पहाड़ों और जंगलों में प्रकृति के बीच जीने वाले लोगों का पूरा जीवन प्रकृति के रंगों और रसों में इतना रमा हुआ होता है कि उनके जीवन का हर पल प्रकृति का संगीत सुनाता प्रतीत होता है।
भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों में निवासरत जनजाति समुदायों की तमाम परम्पराएं प्रकृति के साथ इतनी घुली-मिली हैं कि इनका कोई सा सामाजिक या परिवेशीय अनुष्ठान या उत्सव प्रकृति की गंध के बगैर पूरा होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इन जनजाति समुदायों की अपनी अलग-अलग परम्पराएं रही हैं। इनका समग्र जीवन, मनोहारी जीवन शैली और असंख्य परम्पराएं अपने आप में अन्यतम और अनूठी ही हैं, जिनमें प्रकृति को हर उत्सव में सर्वोपरि महत्त्व प्रदान किया जाता है।


आदिवासी बहुल वागड़ अंचल में अधिकतर लोगों की आजीविका के परम्परागत साधन के रूप में कृषि और पशुपालन मुख्य व्यवसाय रहे हैं। पशु ही यहां के लोगों का धन और हैसियत का प्रतीक रहा है। यह व्यवसाय आज भी चल रहा है।
हालांकि आदिवासी क्षेत्रों में पशु चिकित्सा सेवाओं में हाल के वर्षो में व्यापक विस्तार हुआ है तथापि अपने पशुओं को वर्ष भर निरोगी रखने की दृष्टि से आज भी वनाँचल में ’बेड़ियू’ की प्रथा अपने मौलिक स्वरूप में विद्यमान रहकर लोगों के कौतूहल का केन्द्र रही है वहीं सदियों पुरानी यह परंपरा पशु धन के प्रति आस्था और शाश्वत प्रेम का संदेश भी मुखरित करती रही है।
आम तौर पर बरसात के मौसम में यहाँ के लोग अनन्त चतुर्दशी से पहले-पहले इस परम्परागत रस्म को पूरी करते हैं। आदिवासी क्षेत्रों में भाद्रपद माह में ’बेड़ियू’ का अनुष्ठान किया जाता है। सारे गांव को सूचित किया जाता है और निश्चित दिन रविवार को गांव के तमाम पुरुष माताजी या अन्य देवी-देवता के मन्दिर में, सार्वजनिक स्थल या गाँव के बाहर एकत्रित होते हैं और उसके बाद शुरू होता है पशु रोग मुक्ति का पारंपरिक अनुष्ठान। किसी कारणवश रविवार को रस्म पूरी नहीं हो पाने की स्थिति में मंगलवार को इसे किया जाता है।
मन्दिर का सेवक या गाँव का भौंपा घड़े में शुद्ध पानी मंगवाता है। मान्यता है कि इस भौंपे के शरीर में देवी का भार(भाव) आता है। भौंपा परम्परागत लोक भाषा में विभिन्न मंत्र पढ़ते हुए नीम की पत्तियां डालता जाता है। इसके साथ ही सिन्दूर, दर्भ, नारियल की चटखें, कुंकम, अन्तर (इत्र), अष्टगंध आदि भी मिलाए जाते हैं। यह सब करते वक्त तमाम ग्रामीण वनदेवी माँ और अन्य देवी-देवताओं से ग्राम पशुओं की रक्षा की प्रार्थना करते हैं।
अभिमंत्रित रस्सी देती है आरोग्य का वरदान
इस अनुष्ठान के बाद गाँव में प्रवेश करने वाली की मुख्य सड़क पर मंत्रों से अभिमंत्रित खजूर से बनी रस्सी बाँध दी जाती है जिस पर नीम की टहनियाँ लटकायी जाती हैं। लोग अपने तमाम पशुओं को लेकर नियत स्थल पर जमा होते हैं। एक व्यक्ति मंत्रोच्चार करता हुआ अभिमन्त्रित जल (जिसे स्थानीय भाषा में ’करवणी’ कहा जाता है) नीम की टहनी से पशुओं पर छिड़कता रहता है और पशुओं को रस्सी के नीचे से होकर आगे गुजारा जाता है।
इस स्थल पर नारियल और अन्य हवन सामग्री एवं समिधाओं की धूप लगातार होती रहती है। ऊँचे नाद के साथ ढोल का लगातार वादन होता रहता है। इस क्रिया के समय गाँव का एक भी पशु ऐसा नहीं होता है जिसे रस्सी के नीचे से होकर न गुजारा गया हो। गाँव के बाहर जमा तमाम पशुओं के एक-एक कर या समूहों में इस अभिमंत्रित सुरक्षा रस्सी के नीचे से होकर गांव के प्रवेश करने का दौर पूरा हो जाने के बाद यह विश्वास कर लिया जाता है कि अब गाँव का पशुधन रोगों के प्रकोप से बचा रहेगा। आस्था का भाव यह भी है कि जो पशु इस रस्सी के नीचे से होकर गाँव में प्रवेश कर लेता है वह दैवीय कृपा से साल भर निरोग बना रहता है।
गांव के पूरे पशुओं के रस्सी से होकर एवं पवित्र जल से अभिमन्त्रित होकर गुजर जाने के बाद घड़े में पानी मिलाकर ‘करवणी’(दैवीय जल) की मात्रा बढ़ा दी जाती है। लोग यह करवणी अर्थात मंत्रों से अभिमंत्रित दिव्य जल विविध पात्रों में अपने घर ले जाते हैं तथा खेतों, सब्जियों की बाड़ों-वाड़ियों, पशुओं के रहने के स्थलों आदि में छिड़काव कर देते हैं। पुराने समय से मान्यता चली आ रही है कि इस टोटके से गांव के पशुओं की स्वास्थ्य रक्षा होती है और बरकत आती है।
गांव भर के अनिष्टों का शमन करता है बेडियू
इसी टोटके के साथ गांव में लकड़ियों से छोटी सी गाड़ी बनाई जाती है जिसे रस्सी से खींच कर गांव में घुमाते हुए गांव से बाहर सीमा पर जाकर छोड़ दिया जाता है। इसे बेड़ियू (रथ निकालना) कहा जाता है।
सारे पशुओं के दिव्य रस्सी के नीचे से होकर वापस गाँव में चले जाने के बाद बेडियू का लोक अनुष्ठान किया जाता है। इस दौरान खजूर की पत्तियों व डालियों तथा इसके सूत की रस्सी से छोटी सी गाड़ी बनाई जाती है। इस पर लाल कपड़े से ढका श्रीफल रखा मिट्टी का घड़ा स्थापित किया जाता है जिसे सिंदूर, कुंकुम, टीली-फुंदी आदि से सजाया जाता है। लाल व हरे रंग की दो ध्वजाएं इस पर लगाई जाती हैं। गाँव का भौंपा परम्परागत मंत्रों के साथ इसकी पूजा करता है। सात आदमी इसे लेकर गाँव के चारों तरफ घुमाते हैं तथा फिर इस बेडियू को गाँव की सीमा से बाहर जाकर रख आते हैं, पीछे मुड़कर नहीं देखते।
जनजाति क्षेत्र के जागरुक युवा समाजसेवी श्री फूलशंकर डामोर (खजूरिया) के अनुसार पुराने जमाने से यह लोक मान्यता चली आ रही है कि इससे गांव की तमाम अला-बला (अनिष्टकारी शक्तियां) गांव से बाहर हो जाती हैं और जन-जीवन सुखी एवं स्वस्थ रहता है। इस पुरातन टोटके के वक्त पूरे गांव में उत्साह का माहौल रहता है।
जनजाति बहुत वागड़ अंचल के ग्राम्यांचलों में आज भी ऐसे ढेरों टोने-टोटके प्रचलित हैं जिनमें सामूहिक रूप से ग्राम्य समृद्धि के लिए लोक मंगल की भावना निहित है।